कहानी संग्रह >> कमरा नंबर 103 कमरा नंबर 103सुधा ओम ढींगरा
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ये कहानियों विमर्श, वाद और उस प्रकार के सभी दूसरे टोटकों से परे अपनी ही एक दुनिया बनाती हैं
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
कहानियों की भीड़ से अलग कहानियाँ
डॉ० सुधा ओम ढींगरा की कहानियाँ अपने पक्ष में बहुत शोर-शराबा नहीं करती। ये कहानियाँ बहुत खामोशी के साथ गुजरती हैं। किंतु इस खामोशी में वह आवश्यक हलचल जरूर है, जो किसी भी कहानी के लिए ज़रूरी होती है। ये कहानियों विमर्श, वाद और उस प्रकार के सभी दूसरे टोटकों से परे अपनी ही एक दुनिया बनाती हैं, वो दुनिया जहाँ बहुत छोटी छोटी, रोज़मर्रा के जीवन से उठाई गई घटनाएँ और अपने ही आसपास टहलते हुए पात्र होते हैं। ये दुनिया इसीलिए पाठक को बहुत अपनी-सी लगती है और इसी कारण वह इन कहानियों से कहीं-न-कहीं एक प्रकार का लगाव-सा महसूस करने लगता है। इन कहानियों के पात्र जीवन से यथारूप उठाकर कहानी में रख दिए जाते हैं। या यूँ कहें कि ये पात्र स्वयं ही टहलते हुए सुधाजी की कहानियों में चले आते हैं। पात्रों की सहजता इन कहानियों की सबसे बड़ी विशेषता होती है; किंतु इस सहजता के बावजूद कहानी, सरोकारों के प्रति सजग बनी रहती है। लेखिका की सजगता और पात्रों की सहजता के मेल से जो परिणाम सामने आता है, वह पाठक को बाँध लेता है।
समलैंगिकता पर कलम चलाने में पुरुष लेखक ही डरते रहे हैं, ऐसे में कहानी ’आग में गर्मी कम क्यों है’ लिखना और वह भी पूरी ज़िम्मेदारी से लिखना। कहानी का शीर्षक पूरी-की-पूरी कहानी में प्रतिध्वनित होता रहता है। एक रहस्मय अँधेरी दुनिया के कुछ परदों को उठाने का प्रयास लेखिका ने बहुत सफलता के साथ किया है। कहानी उन ’समस्याओं की बात करती है, जो समलैंगिकता से जुड़ी हैं। और इस समस्या का वैज्ञानिक पक्ष भी तलाशने की कोशिश करती हैं। रसायनों के खेल के माध्यम से समलैंगिकता विषमलैंगिकता की अबूझ पहेली का हल तलशने की कहानी है ये। लेखिका ने कहानी को पूरी तैयारी के साथ लिखा है। कहानी को इस विषय पर लिखी गई श्रेष्ठ कहानियों में रखा जा सकता है।
इन दिनों बड़े-बड़े विषयों पर बड़ी-बड़ी कहानियाँ, बड़े तामझाम के साथ छापने का चलन-सा हो गया है। जीवन की छोटी-छोटी घटनाएँ कहानी का विषय नहीं बन पा रही हैं, जबकि पाठक इनको ही अधिक पसंद करता है। ऐसे में ’और बाड़ बन गई’ जैसी कहानियाँ पाठक को राहत प्रदान करती हैं। बहुत छोटी-सी घटना, जिसमें नया पड़ोसी अपने घर के चारों तरफ बाड़ लगवा रहा है। उस बाड़ को प्रतीक बनाकर अनुभव किया गया मानव-मनोविज्ञान को भी खूब हड़ताल कर ली गई है। कहानी भले ही अमेरिका में चलती है, किन्तु स्थापित यही होता है कि मनोविज्ञान कमोबेश वही है, देश भले ही कोई-सा भी हो। ये कहानी अपनी पूरी सरलता के साथ अपने आपको पाठक से पढ़वा ले जाती है। पाठक बाड़ के बहाने चल रहे विमर्श का पूरा आनंद लेता है और कहानी से जुड़ा रहता है। बाड़ के एक छोटे से प्रतीक को लेखिका ने अद्भुत विस्तार दिया है। ये प्रतीक जाने कहाँ-कहाँ से गुज़रता है, अपने निशान छोड़ता हुआ।
’कमरा नंबर 1०3’ बिल्कुल अलग प्रकार की कहानी है। टैरी और एमी के अलावा जो तीसरा मूक पात्र मिसेज वर्मा कहानी में उपस्थित है, उसकी खामोशी के संवाद लेखिका ने बहुत सुंदर तरीके से लिखे हैं। ये भी अपने ही प्रकार की एक कहानी है, जिसमें एक पात्र भले ही कोमा में है, किंतु संवाद बराबर कर रहा है। उसके संवाद एकालाप की तरह होते हैं। दूसरी तरफ नर्स टैरी और एमी के संवादों के माध्यम से समस्या के मूल तक जाने के प्रयास में कहानी लगी रहती है। ये जो दो समानांतर रूप से चल रही घटनाएँ हैं, ये कहानी को रोचक बनाए रखती हैं। मिसेज वर्मा कोमा में हैं और उस कोमा के पीछे के सच को जानने की कोशिश में लगी हैं टैरी और एमी। कहानी के अंत में मिसेज वर्मा भी इस कोशिश में शामिल होती हैं, मगर अपने ही तरीके से। कहानी मन को छू जाती है।
’टारनेडो’ लेखिका की एक सफल और चर्चित कहानी है। ये कहानी भारत से अमेरिका के बीच में पेंडुलम की तरह डोलती है; और इस डोलने के बीच कई बिंदुओं को छूती है। यह कहानी भारतीय परंपराओं की स्थापना की कहानी है। लेखिका ने पाश्चात्य जीवन-शैली और भारतीयता को एक साथ कसौटी पर कसा है। उन्मुक्तता और मर्यादा के हानि-लाभों को खोला गया है इस कहानी में। मिसेज शंकर एबनार्मल हैं, ये वाक्य भारतीयता के बारे में मानो पूरे पश्चिम द्वारा बोला गया वाक्य है। बरसों बरस से भारतीयों को एबनार्मल बताकर उन्हें संस्कारित करने का प्रयास पश्चिम द्वारा होता रहा है। ये कहानी उन सारे प्रयासों का एक सुदृढ़ तथा सटीक उत्तर है। उत्तर जो उसी भाषा में दिया गया है, जिस भाषा में प्रश्न होता है। लेखिका ने अपनी जन्मभूमि और कर्मभूमि दोनों का तुलनात्मक पाठ कहानी में प्रस्तुत किया है।
’वह कोई और थी’ कहानी एक बहुत आम समस्या को अलग तरह से प्रस्तुत करती है। विवाह के माध्यम से अमेरिका की नागरिकता लेना तथा उसके लिए अपने साथी की हर बात को सहन करना। ये कहानी का एक पक्ष है, किंतु, दूसरा पक्ष ये भी है कि यदि ये विवाह नागरिकता लेने के लिये न होकर प्रेम के चलते किया गया हो तो...? कहानी ग्रीन कार्ड, अस्थाई नागरिकता जैसे तकनीकी शब्दों के अर्थ कहानी में आम पाठक के लिए सरलता से आते हैं। यह कहानी एक अलग प्रकार के पुरुष-विमर्श की कहानी है। पुरुष-विमर्श, जिस पर चर्चा करने से हर कोई कतराता है। समलैंगिकता के बाद पुरुष-विमर्श पर कहानी लिखकर लेखिका ने मानो निर्धारित दायरों को तोड़ने की चुनौती को स्वीकार किया है। हिंदी साहित्य में स्त्री-विमर्श नाम पर जो एकपक्षीय लेखन पिछले कई दिनों से चल रहा है, उसका प्रतिकार है ये कहानी।
’दृश्य भ्रम’ एक ऐसी कहानी है, जिसमें संवादहीनता के कारण उत्पन्न हुई परिस्थितियों को केंद्र में रखा गया है। आज के तेज सूचना-प्रधान युग में इस प्रकार की संवादहीनता की गुंजाइश नहीं के बराबर है, किंतु जिस समय की बात कहानी में है, उस समय में इस प्रकार की संवादहीनता अक्सर होती थी। कथानायक और नायिका के बीच पैदा की गई गलतफहमी और उसके बाद नायक का दृश्य से लुप्त हो जाना। कहानी में एक साथ कई प्रश्नों की तलाश करने का प्रयास है, जिनमें ऊँच-नीच, जात-पात जैसे प्रश्न भी हैं।
डॉ० सुधा ओम ढींगरा की एक और चर्चित कहानी है ’सूरज क्यों निकलता है’। ये कहानी मनोविज्ञान के अलग धरातल पर लिखी गई है। कहानी उस मानिसकता की बात करती है, जो मानसिकता किसी देश या काल से बँधकर नहीं रहती। हम अपने देश में अपने आसपास भी इस प्रकार के चरित्रों को, पात्रों को देख सकते हैं, देखते रहते हैं। हमें लगता है कि इस प्रकार के लोग केवल हमारे ही देश में होते हैं, किंतु, जब इस प्रकार की कहानियाँ पढ्ने को मिलती हैं, तो हमें पता लगता है कि ये पात्र तो वैश्विक हैं; हर जगह पाये जाने वाले पात्र, जिनका नाम जेम्स-पीटर या घीसू-माधव कुछ भी हो सकता है। नाम बदलने से मानसिकता नहीं बदलने वाली। इस कहानी में लेखिका अपने उद्देश्य में पूरी तरह से सफल रही है। मानव-मन के जिस अंधकार की तरफ कहानी का शीर्षक इशारा कर रहा है, उसको पूरी तरह से जस्टीफाई करती है ये कहानी। ये लेखिका की सर्वश्रेष्ठ कहानियों में से एक कहानी है।
डॉ० सुधा ओम ढींगरा की कहानियाँ अपने अनोखे विषयों के लिए चर्चित रहती हैं और इस संग्रह की कहानियों में भी वह विविधता, वह अनोखापन है। नए और अछूते विषयों को अपनी कहानियों के लिए चुनने की लेखिका की जिद उनकी कहानियों को भीड़ से अलग बनाती है; और इस संग्रह की कहानियों में भी वो जिद लगभग हर कहानी में नज़र आती है।
-पंकज सुबीर पी०सी० लैब, सम्राट कॉम्पलेक्स बेसमेंट
बस स्टैंड के सामने, सीहोर (मध्यप्रदेश ) 466००1
दूरभाष : ०9977855399
मेल : subeerin@gmail.com
आग में गर्मी कम क्यों है?
अंत्येष्टिगृह के कोने में फर्श पर वह दीवार के सहारे बैठी अपनी हथेलियों को देख रही है... हर सुबह यही तो होता है।.. बचपन में माँ ने कहा था कि सुबह उठते ही दोनों हाथों को जोड़कर अपनी हथेलियाँ देखा कर, भाग्य उदय होता है। तबसे वह रोज ऐसा करती है और हाथों की लकीरों को देखने की उसे आदत-सी हो गई है। उन पर विश्वास करने लगी है। घटती-बढ़ती लकीरों के साथ जीवन के उतार- चढ़ाव को वह पहचानने लगी है। हथेलियों पर अचानक कई नई उभरी लकीरों को उसने देखा था और उसके जीवन में अकस्मात् कई नए मोड़ भी आए थे।
आज वह गौर से उस लकीर को ढूँढ रही है, जिसने उसके भाग्य को अस्त कर दिया। हथेलियाँ उसे धुँधली-धुँधली दिखाई दे रही हैं। लकीरें साफ नजर नहीं आ रहीं। दाईं तरफ़ उसका सात वर्षीय बेटा सोनू उससे चिपककर बैठा है और आते-जाते लोगों को देख रहा है। बाईं ओर पाँच वर्षीय बेटा जय उसकी गोद में पड़ी चार माह की बेटी के मुँह में चूसनी डालने की कोशिश कर रहा है। हालाँकि वह चुप है, रो नहीं रही, वह तब भी उसके मुँह में चूसनी डाल रहा है, कहीं वह रो न पड़े। वातावरण की गंभीरंता को वह समझ रहा है। नहीं चाहता कि बहन रोए और सबका ध्यान भंग हो। भारतीय समुदाय के लोग एक कोने में इकट्ठे होने शुरू हो गए हैं। उसकी सहेली मीनल मोबाइल पर पंडितजी से बात कर रही, है। फोन को कान से लगाए ही वह हैंड बैग और फूलों की टोकरी को दूसरे कमरे में रखने चली जाती है। मीनल का पति संपत पॉल बड़ी देर से अंत्येष्टिगृह की एक महिला के साथ बातें कर रहा है। सोनू और जय, संपत अंकल को बड़े गौर से देख रहे हैं। उस महिला के साथ बात करते हुए संपत अंकल उनकी और फर्श पर रखे बैग की ओर इशारा कर कुछ कह रहे हैं।
वह एकटक सामने रखे प्लास्टिक के बैग को देख रही है। बैग में उसके पति की लाश पड़ी है। अभी-अभी अस्पताल से लाई गई है। भावहीन चेहरे से वह उसे देखती जा रही है। आँखे सूनी हैं। नमीं उसके भीतर गहरे में फैलती जा रही है पर आँखों से से बाहर का रास्ता ढूँढ नहीं पाई है। प्रश्नों ने तनाव के साथ मिलकर नया मोर्चाँ खोल उसके मस्तिष्क को बेकाबू कर दिया है। वह इस दुर्घटना को रोक सकती थी, पर कैसे? उसका पति उसे कभी कुछ नहीं बताता था। बच्चों के अतिरिक्त और क्या साझा रह गया था उनमें? वह कितनी दूर चला गया था। अँधेरे की परछाईं बन गया था। उसके हर प्रश्न को वह मुस्कराकर टाल जाता था।
प्लास्टिक बैग में पड़ा हुआ भी वह जरूर मुस्करा रहा होगा। शरीर रेल गाड़ी से कट गया। आत्महत्या की है उसने। वह तो सोया हुआ भी मुस्कराता रहता था और वह सोचती थी कि सोए हुए इंसान के चेहरे पर इतनी शांत मुस्कुराहट कैसे हो सकती है?
उसके पति की यही मुस्कराहट उसके साँवले रंग और उसकी आँखों में एक खूबसूरत चमक भरकर उसके व्यक्तित्व में चुंबकीय आकर्षण पैदा कर देती थी। उसकी नजरों में कशिश थी। वह अनचाहे हई उसकी जकड़ में आ गई थी। कई चेहरे मोहिनी बूटी-से होते हैं, बस मोह लेते हैं। उसकी नटखट मुस्कान उसके भीतर-बाहर रोमांच का बसंत खिला गई थी। उसे दुनिया बहुत खूबसूरत और रंग-बिरंगी लगने लगी थी। परी उसकी प्रिय सखी थी। उसी की शादी में वह उससे मिली थी। वह परी की बुआ का बेटा शेखर था।
निम्न मध्यवर्गीय परिवार के माता-पिता उसकी शादी के लिए काफी चिंतित थे। उन्हें जब पता चला कि परी का परिवार उसका रिश्ता शेखर के लिए चाह रहा है, साथ ही शादी का सारा खर्चा भी वे स्वयं उठाने के लिए तैयार हैं। पेशकश राहत भत्ता-सी लगी और सोचने में उन्होंने ज्यादा देर नहीं लगाई। शेखर अमेरिका की सिस्को सिस्टम कंपनी में सॉफ्टवेयर इंजीनियर था। परी की शादी में वह और शेखर अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्ति प्रदान कर चुके थे। वह इसे संयोग और हाथों की लकीरों का खेल मानती रही। परी की शादी के एकदम बाद उसकी शादी हो गई। दो सप्ताह के भीतर वह नए देश और अजनबी लोगों में नवजीवन के स्वप्न व कुछ डर लेकर अमेरिका आ गई।
आज उसके सारे सपने ढह चुके हैं। परदेस में अपनों से दूर, उदास, परेशान, अंत्येष्टिगह के चर्च में अकेली बैठी पति की अंतिम बिदाई की प्रतीक्षा कर रही है। वहाँ के शांत वातावरण में कई क़दमों की आहट सुनाई दी।
भारतीय समुदाय की कुछ महिलाएँ चर्च के उसी कमरे में आ गईं, जहाँ वह शेखर पर आँखें टिकाए स्थिर बैठी है। ऐसा लग रहा है जैसे वह उसके चेहरे में कुछ ढूँढ रही है। एक बजुर्ग औरत ने उसके सिर पर सहानुभूति से हाथ फेरा। वह उसी तरह बिना हिले-डुले बैठी रही। महिलाएँ कुछ बोलीं नहीं, उसकी तरफ़ देखती हुई बस चुपचाप साथ की दीवार से सटी हुई कुर्सियों पर बैठ गईं। पारुल, साक्षी की कुलीग ने, उसकी गोद से बच्ची को लेकर अपनी बाँहों में उठा लिया। मीनल सोनू और जय को दूसरे कमरे में ले गई। उसने पालथी हटाकर अपने घुटनों को समेट लिया। दोनों बाजुओं से कसकर उन्हें पकड़ लिया और अपना चेहरा उस पर टिका दिया। दीवार के साथ लगी कुर्सियों पर बैठी महिलाओं ने धीमी आवाज़ में बातचीत शुरू की- ’साक्षी रो नहीं रही, इसे रुलाओ... नहीं तो शरीर रोने लगेगा। डर लगता है इसे कहीं कुछ हो न जाए।’ ’शेखर इसे जिस हालात में छोड़ गया है, रोना तो इसने अब सारी उम्र है।’ ’बेचारी क़िस्मत की मारी, अभी नौ साल ही तो शादी को हुए हैं। तीन छोटे-छोटे बच्चे... भरी जवानी.. हाय.. इसे इस तरह देखकर दिल रो रहा है। ’
कई महिलाओं ने रूमाल से नाक सुड़के और आँखों से निकल आए खारे पानी को सोखा।
’शेखर ने जो किया, ऐसा तो अवसादग्रस्त लोग करते हैं, भारी निराशा में। ’ ’बाहर से कितना सभ्य-सुसंस्कृत लगता था.. हँसता-मुस्कराता...।’
’अरे पति-पत्नी ही एक-दूसरे के बारे में बता सकते हैं कि वे कैसे हैं? यूँ तो सब शालीन लगते हैं। ’
’सुना है, एक चिट्ठी कार से मिली है और कार रेलवे फाटक के पास ही पार्क की हुई थी।’
’दैनिक न्यूज एंड ऑब्जर्बर में लिखा था कि गाड़ी को आते देखकर वह पटरी पर खड़ा हो गया था, ड्राइवर ने जब देखा तो गाड़ी की स्पीड कम करने में उसे समय लगा और तब तक वह टकरा गया।’
’मालगाड़ी थी। उसकी गति धीमी होती है। तेज रफ्तार वाली यात्री गाड़ी होती तो शरीर के चीथड़े उड़ जाते। ’
’भई, वहाँ से तो एक ही लंबी-सी मालगाड़ी निकलती है।’
’हाँ, उसी से तो टकराया।’
’पता नहीं कितने दिनों से योजना बना रहा था। गाड़ी के समय को निश्चित कर रहा था।’
’जान लेते समय बच्चों का भी नहीं सोचा.. साक्षी तो हर रोज़ परीक्षा देती थी।
क्या कह रही हैं आप, मिसेज पांडियन?
’अरे आप लोगों को नहीं पता, अब तो तकरीबन सबको मालूम है।’ सबने अपनी-अपनी कुर्सियों दीवार से हटाकर गोल घेरे में कर लीं, ताकि बात को करीब से सुन सकें।
’क्यों?’ सबकी औंखें प्रश्नवाचक थीं।
’शेखर के किसी जेम्स के साथ संबंध थे।’
’क्या.?’ सबके मुँह से यह शब्द निकला, पर बड़ी दबी जुबान में।
’ठीक है, अगर पुरुष का साथ पसंद था तो साक्षी से शादी क्यों की?’
’अब किससे और कौन पूछे?’ ’और साक्षी को पता कैसे नहीं चला?’
’तीन बच्चे साक्षी ने ऐसे आदमी के साथ कैसे पैदा कर लिए?’
’यह समय इन बातों का नहीं। साक्षी को हमारे साथ की जरूरत है। तीन बच्चों के साथ वह अकेली हो गई है, इस देश में।’ पारुल ने एक तरह से सबको चुप कराते हुए कहा।
’सही कहा तुमने? औरत पर क्या गुजरती है, सिर्फ़ वही जानती है और कोई नहीं।’ मिसिज भास्कर ने लंबी साँस लेते हुए कहा।
’पारुल, तुम साक्षी की सहेली हो, सच्चाई से बेखबर नहीं, आत्महत्या का कोई तो कारण होगा।’ मिसिज तांबे पारुल की ओर देखते हुए बोलीं।
’आटी, सिवाय साक्षी के सच्चाई कोई नहीं जानता। जेम्स की बात भी पता नहीं कैसे लोगों तक पहुँच गई?’
’मुझे तो इतना पता है कि साक्षी ने पुलिस को पोलाइट रिक्वेस्ट की थी कि पत्र में लिखा हुआ अगर सार्वजनिक न किया जाए तो वह आभारी होगी। पुलिस ने उसे मान लिया और निजता तथा पारिवारिक सुरक्षा के अंतर्गत उसे फ़ाइल में रखकर सील कर दिया।’
’अमरीका में क्या-क्या देखने-सुनने को मिलता है! रौंगटे खड़े हो जाते हैं।’ मीनल की सास बोलीं।
’आंटी, होता भारत में भी सब-कुछ है, बस ढक लिया जाता है। औरत ही कई बार अपने लिए खड़ी नहीं होती।’ पारुल रूखी-सी बोली।
’खैर, अब तो वहाँ भी बहुत-कुछ सामने आने लगा है।’
मीनल ने सास को कहा।
’ओह! गॉड। साक्षी के चेहरे की ओर देखा नहीं जा रहा।’
डॉ० सुधा ओम ढींगरा की कहानियाँ अपने पक्ष में बहुत शोर-शराबा नहीं करती। ये कहानियाँ बहुत खामोशी के साथ गुजरती हैं। किंतु इस खामोशी में वह आवश्यक हलचल जरूर है, जो किसी भी कहानी के लिए ज़रूरी होती है। ये कहानियों विमर्श, वाद और उस प्रकार के सभी दूसरे टोटकों से परे अपनी ही एक दुनिया बनाती हैं, वो दुनिया जहाँ बहुत छोटी छोटी, रोज़मर्रा के जीवन से उठाई गई घटनाएँ और अपने ही आसपास टहलते हुए पात्र होते हैं। ये दुनिया इसीलिए पाठक को बहुत अपनी-सी लगती है और इसी कारण वह इन कहानियों से कहीं-न-कहीं एक प्रकार का लगाव-सा महसूस करने लगता है। इन कहानियों के पात्र जीवन से यथारूप उठाकर कहानी में रख दिए जाते हैं। या यूँ कहें कि ये पात्र स्वयं ही टहलते हुए सुधाजी की कहानियों में चले आते हैं। पात्रों की सहजता इन कहानियों की सबसे बड़ी विशेषता होती है; किंतु इस सहजता के बावजूद कहानी, सरोकारों के प्रति सजग बनी रहती है। लेखिका की सजगता और पात्रों की सहजता के मेल से जो परिणाम सामने आता है, वह पाठक को बाँध लेता है।
समलैंगिकता पर कलम चलाने में पुरुष लेखक ही डरते रहे हैं, ऐसे में कहानी ’आग में गर्मी कम क्यों है’ लिखना और वह भी पूरी ज़िम्मेदारी से लिखना। कहानी का शीर्षक पूरी-की-पूरी कहानी में प्रतिध्वनित होता रहता है। एक रहस्मय अँधेरी दुनिया के कुछ परदों को उठाने का प्रयास लेखिका ने बहुत सफलता के साथ किया है। कहानी उन ’समस्याओं की बात करती है, जो समलैंगिकता से जुड़ी हैं। और इस समस्या का वैज्ञानिक पक्ष भी तलाशने की कोशिश करती हैं। रसायनों के खेल के माध्यम से समलैंगिकता विषमलैंगिकता की अबूझ पहेली का हल तलशने की कहानी है ये। लेखिका ने कहानी को पूरी तैयारी के साथ लिखा है। कहानी को इस विषय पर लिखी गई श्रेष्ठ कहानियों में रखा जा सकता है।
इन दिनों बड़े-बड़े विषयों पर बड़ी-बड़ी कहानियाँ, बड़े तामझाम के साथ छापने का चलन-सा हो गया है। जीवन की छोटी-छोटी घटनाएँ कहानी का विषय नहीं बन पा रही हैं, जबकि पाठक इनको ही अधिक पसंद करता है। ऐसे में ’और बाड़ बन गई’ जैसी कहानियाँ पाठक को राहत प्रदान करती हैं। बहुत छोटी-सी घटना, जिसमें नया पड़ोसी अपने घर के चारों तरफ बाड़ लगवा रहा है। उस बाड़ को प्रतीक बनाकर अनुभव किया गया मानव-मनोविज्ञान को भी खूब हड़ताल कर ली गई है। कहानी भले ही अमेरिका में चलती है, किन्तु स्थापित यही होता है कि मनोविज्ञान कमोबेश वही है, देश भले ही कोई-सा भी हो। ये कहानी अपनी पूरी सरलता के साथ अपने आपको पाठक से पढ़वा ले जाती है। पाठक बाड़ के बहाने चल रहे विमर्श का पूरा आनंद लेता है और कहानी से जुड़ा रहता है। बाड़ के एक छोटे से प्रतीक को लेखिका ने अद्भुत विस्तार दिया है। ये प्रतीक जाने कहाँ-कहाँ से गुज़रता है, अपने निशान छोड़ता हुआ।
’कमरा नंबर 1०3’ बिल्कुल अलग प्रकार की कहानी है। टैरी और एमी के अलावा जो तीसरा मूक पात्र मिसेज वर्मा कहानी में उपस्थित है, उसकी खामोशी के संवाद लेखिका ने बहुत सुंदर तरीके से लिखे हैं। ये भी अपने ही प्रकार की एक कहानी है, जिसमें एक पात्र भले ही कोमा में है, किंतु संवाद बराबर कर रहा है। उसके संवाद एकालाप की तरह होते हैं। दूसरी तरफ नर्स टैरी और एमी के संवादों के माध्यम से समस्या के मूल तक जाने के प्रयास में कहानी लगी रहती है। ये जो दो समानांतर रूप से चल रही घटनाएँ हैं, ये कहानी को रोचक बनाए रखती हैं। मिसेज वर्मा कोमा में हैं और उस कोमा के पीछे के सच को जानने की कोशिश में लगी हैं टैरी और एमी। कहानी के अंत में मिसेज वर्मा भी इस कोशिश में शामिल होती हैं, मगर अपने ही तरीके से। कहानी मन को छू जाती है।
’टारनेडो’ लेखिका की एक सफल और चर्चित कहानी है। ये कहानी भारत से अमेरिका के बीच में पेंडुलम की तरह डोलती है; और इस डोलने के बीच कई बिंदुओं को छूती है। यह कहानी भारतीय परंपराओं की स्थापना की कहानी है। लेखिका ने पाश्चात्य जीवन-शैली और भारतीयता को एक साथ कसौटी पर कसा है। उन्मुक्तता और मर्यादा के हानि-लाभों को खोला गया है इस कहानी में। मिसेज शंकर एबनार्मल हैं, ये वाक्य भारतीयता के बारे में मानो पूरे पश्चिम द्वारा बोला गया वाक्य है। बरसों बरस से भारतीयों को एबनार्मल बताकर उन्हें संस्कारित करने का प्रयास पश्चिम द्वारा होता रहा है। ये कहानी उन सारे प्रयासों का एक सुदृढ़ तथा सटीक उत्तर है। उत्तर जो उसी भाषा में दिया गया है, जिस भाषा में प्रश्न होता है। लेखिका ने अपनी जन्मभूमि और कर्मभूमि दोनों का तुलनात्मक पाठ कहानी में प्रस्तुत किया है।
’वह कोई और थी’ कहानी एक बहुत आम समस्या को अलग तरह से प्रस्तुत करती है। विवाह के माध्यम से अमेरिका की नागरिकता लेना तथा उसके लिए अपने साथी की हर बात को सहन करना। ये कहानी का एक पक्ष है, किंतु, दूसरा पक्ष ये भी है कि यदि ये विवाह नागरिकता लेने के लिये न होकर प्रेम के चलते किया गया हो तो...? कहानी ग्रीन कार्ड, अस्थाई नागरिकता जैसे तकनीकी शब्दों के अर्थ कहानी में आम पाठक के लिए सरलता से आते हैं। यह कहानी एक अलग प्रकार के पुरुष-विमर्श की कहानी है। पुरुष-विमर्श, जिस पर चर्चा करने से हर कोई कतराता है। समलैंगिकता के बाद पुरुष-विमर्श पर कहानी लिखकर लेखिका ने मानो निर्धारित दायरों को तोड़ने की चुनौती को स्वीकार किया है। हिंदी साहित्य में स्त्री-विमर्श नाम पर जो एकपक्षीय लेखन पिछले कई दिनों से चल रहा है, उसका प्रतिकार है ये कहानी।
’दृश्य भ्रम’ एक ऐसी कहानी है, जिसमें संवादहीनता के कारण उत्पन्न हुई परिस्थितियों को केंद्र में रखा गया है। आज के तेज सूचना-प्रधान युग में इस प्रकार की संवादहीनता की गुंजाइश नहीं के बराबर है, किंतु जिस समय की बात कहानी में है, उस समय में इस प्रकार की संवादहीनता अक्सर होती थी। कथानायक और नायिका के बीच पैदा की गई गलतफहमी और उसके बाद नायक का दृश्य से लुप्त हो जाना। कहानी में एक साथ कई प्रश्नों की तलाश करने का प्रयास है, जिनमें ऊँच-नीच, जात-पात जैसे प्रश्न भी हैं।
डॉ० सुधा ओम ढींगरा की एक और चर्चित कहानी है ’सूरज क्यों निकलता है’। ये कहानी मनोविज्ञान के अलग धरातल पर लिखी गई है। कहानी उस मानिसकता की बात करती है, जो मानसिकता किसी देश या काल से बँधकर नहीं रहती। हम अपने देश में अपने आसपास भी इस प्रकार के चरित्रों को, पात्रों को देख सकते हैं, देखते रहते हैं। हमें लगता है कि इस प्रकार के लोग केवल हमारे ही देश में होते हैं, किंतु, जब इस प्रकार की कहानियाँ पढ्ने को मिलती हैं, तो हमें पता लगता है कि ये पात्र तो वैश्विक हैं; हर जगह पाये जाने वाले पात्र, जिनका नाम जेम्स-पीटर या घीसू-माधव कुछ भी हो सकता है। नाम बदलने से मानसिकता नहीं बदलने वाली। इस कहानी में लेखिका अपने उद्देश्य में पूरी तरह से सफल रही है। मानव-मन के जिस अंधकार की तरफ कहानी का शीर्षक इशारा कर रहा है, उसको पूरी तरह से जस्टीफाई करती है ये कहानी। ये लेखिका की सर्वश्रेष्ठ कहानियों में से एक कहानी है।
डॉ० सुधा ओम ढींगरा की कहानियाँ अपने अनोखे विषयों के लिए चर्चित रहती हैं और इस संग्रह की कहानियों में भी वह विविधता, वह अनोखापन है। नए और अछूते विषयों को अपनी कहानियों के लिए चुनने की लेखिका की जिद उनकी कहानियों को भीड़ से अलग बनाती है; और इस संग्रह की कहानियों में भी वो जिद लगभग हर कहानी में नज़र आती है।
-पंकज सुबीर पी०सी० लैब, सम्राट कॉम्पलेक्स बेसमेंट
बस स्टैंड के सामने, सीहोर (मध्यप्रदेश ) 466००1
दूरभाष : ०9977855399
मेल : subeerin@gmail.com
आग में गर्मी कम क्यों है?
अंत्येष्टिगृह के कोने में फर्श पर वह दीवार के सहारे बैठी अपनी हथेलियों को देख रही है... हर सुबह यही तो होता है।.. बचपन में माँ ने कहा था कि सुबह उठते ही दोनों हाथों को जोड़कर अपनी हथेलियाँ देखा कर, भाग्य उदय होता है। तबसे वह रोज ऐसा करती है और हाथों की लकीरों को देखने की उसे आदत-सी हो गई है। उन पर विश्वास करने लगी है। घटती-बढ़ती लकीरों के साथ जीवन के उतार- चढ़ाव को वह पहचानने लगी है। हथेलियों पर अचानक कई नई उभरी लकीरों को उसने देखा था और उसके जीवन में अकस्मात् कई नए मोड़ भी आए थे।
आज वह गौर से उस लकीर को ढूँढ रही है, जिसने उसके भाग्य को अस्त कर दिया। हथेलियाँ उसे धुँधली-धुँधली दिखाई दे रही हैं। लकीरें साफ नजर नहीं आ रहीं। दाईं तरफ़ उसका सात वर्षीय बेटा सोनू उससे चिपककर बैठा है और आते-जाते लोगों को देख रहा है। बाईं ओर पाँच वर्षीय बेटा जय उसकी गोद में पड़ी चार माह की बेटी के मुँह में चूसनी डालने की कोशिश कर रहा है। हालाँकि वह चुप है, रो नहीं रही, वह तब भी उसके मुँह में चूसनी डाल रहा है, कहीं वह रो न पड़े। वातावरण की गंभीरंता को वह समझ रहा है। नहीं चाहता कि बहन रोए और सबका ध्यान भंग हो। भारतीय समुदाय के लोग एक कोने में इकट्ठे होने शुरू हो गए हैं। उसकी सहेली मीनल मोबाइल पर पंडितजी से बात कर रही, है। फोन को कान से लगाए ही वह हैंड बैग और फूलों की टोकरी को दूसरे कमरे में रखने चली जाती है। मीनल का पति संपत पॉल बड़ी देर से अंत्येष्टिगृह की एक महिला के साथ बातें कर रहा है। सोनू और जय, संपत अंकल को बड़े गौर से देख रहे हैं। उस महिला के साथ बात करते हुए संपत अंकल उनकी और फर्श पर रखे बैग की ओर इशारा कर कुछ कह रहे हैं।
वह एकटक सामने रखे प्लास्टिक के बैग को देख रही है। बैग में उसके पति की लाश पड़ी है। अभी-अभी अस्पताल से लाई गई है। भावहीन चेहरे से वह उसे देखती जा रही है। आँखे सूनी हैं। नमीं उसके भीतर गहरे में फैलती जा रही है पर आँखों से से बाहर का रास्ता ढूँढ नहीं पाई है। प्रश्नों ने तनाव के साथ मिलकर नया मोर्चाँ खोल उसके मस्तिष्क को बेकाबू कर दिया है। वह इस दुर्घटना को रोक सकती थी, पर कैसे? उसका पति उसे कभी कुछ नहीं बताता था। बच्चों के अतिरिक्त और क्या साझा रह गया था उनमें? वह कितनी दूर चला गया था। अँधेरे की परछाईं बन गया था। उसके हर प्रश्न को वह मुस्कराकर टाल जाता था।
प्लास्टिक बैग में पड़ा हुआ भी वह जरूर मुस्करा रहा होगा। शरीर रेल गाड़ी से कट गया। आत्महत्या की है उसने। वह तो सोया हुआ भी मुस्कराता रहता था और वह सोचती थी कि सोए हुए इंसान के चेहरे पर इतनी शांत मुस्कुराहट कैसे हो सकती है?
उसके पति की यही मुस्कराहट उसके साँवले रंग और उसकी आँखों में एक खूबसूरत चमक भरकर उसके व्यक्तित्व में चुंबकीय आकर्षण पैदा कर देती थी। उसकी नजरों में कशिश थी। वह अनचाहे हई उसकी जकड़ में आ गई थी। कई चेहरे मोहिनी बूटी-से होते हैं, बस मोह लेते हैं। उसकी नटखट मुस्कान उसके भीतर-बाहर रोमांच का बसंत खिला गई थी। उसे दुनिया बहुत खूबसूरत और रंग-बिरंगी लगने लगी थी। परी उसकी प्रिय सखी थी। उसी की शादी में वह उससे मिली थी। वह परी की बुआ का बेटा शेखर था।
निम्न मध्यवर्गीय परिवार के माता-पिता उसकी शादी के लिए काफी चिंतित थे। उन्हें जब पता चला कि परी का परिवार उसका रिश्ता शेखर के लिए चाह रहा है, साथ ही शादी का सारा खर्चा भी वे स्वयं उठाने के लिए तैयार हैं। पेशकश राहत भत्ता-सी लगी और सोचने में उन्होंने ज्यादा देर नहीं लगाई। शेखर अमेरिका की सिस्को सिस्टम कंपनी में सॉफ्टवेयर इंजीनियर था। परी की शादी में वह और शेखर अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्ति प्रदान कर चुके थे। वह इसे संयोग और हाथों की लकीरों का खेल मानती रही। परी की शादी के एकदम बाद उसकी शादी हो गई। दो सप्ताह के भीतर वह नए देश और अजनबी लोगों में नवजीवन के स्वप्न व कुछ डर लेकर अमेरिका आ गई।
आज उसके सारे सपने ढह चुके हैं। परदेस में अपनों से दूर, उदास, परेशान, अंत्येष्टिगह के चर्च में अकेली बैठी पति की अंतिम बिदाई की प्रतीक्षा कर रही है। वहाँ के शांत वातावरण में कई क़दमों की आहट सुनाई दी।
भारतीय समुदाय की कुछ महिलाएँ चर्च के उसी कमरे में आ गईं, जहाँ वह शेखर पर आँखें टिकाए स्थिर बैठी है। ऐसा लग रहा है जैसे वह उसके चेहरे में कुछ ढूँढ रही है। एक बजुर्ग औरत ने उसके सिर पर सहानुभूति से हाथ फेरा। वह उसी तरह बिना हिले-डुले बैठी रही। महिलाएँ कुछ बोलीं नहीं, उसकी तरफ़ देखती हुई बस चुपचाप साथ की दीवार से सटी हुई कुर्सियों पर बैठ गईं। पारुल, साक्षी की कुलीग ने, उसकी गोद से बच्ची को लेकर अपनी बाँहों में उठा लिया। मीनल सोनू और जय को दूसरे कमरे में ले गई। उसने पालथी हटाकर अपने घुटनों को समेट लिया। दोनों बाजुओं से कसकर उन्हें पकड़ लिया और अपना चेहरा उस पर टिका दिया। दीवार के साथ लगी कुर्सियों पर बैठी महिलाओं ने धीमी आवाज़ में बातचीत शुरू की- ’साक्षी रो नहीं रही, इसे रुलाओ... नहीं तो शरीर रोने लगेगा। डर लगता है इसे कहीं कुछ हो न जाए।’ ’शेखर इसे जिस हालात में छोड़ गया है, रोना तो इसने अब सारी उम्र है।’ ’बेचारी क़िस्मत की मारी, अभी नौ साल ही तो शादी को हुए हैं। तीन छोटे-छोटे बच्चे... भरी जवानी.. हाय.. इसे इस तरह देखकर दिल रो रहा है। ’
कई महिलाओं ने रूमाल से नाक सुड़के और आँखों से निकल आए खारे पानी को सोखा।
’शेखर ने जो किया, ऐसा तो अवसादग्रस्त लोग करते हैं, भारी निराशा में। ’ ’बाहर से कितना सभ्य-सुसंस्कृत लगता था.. हँसता-मुस्कराता...।’
’अरे पति-पत्नी ही एक-दूसरे के बारे में बता सकते हैं कि वे कैसे हैं? यूँ तो सब शालीन लगते हैं। ’
’सुना है, एक चिट्ठी कार से मिली है और कार रेलवे फाटक के पास ही पार्क की हुई थी।’
’दैनिक न्यूज एंड ऑब्जर्बर में लिखा था कि गाड़ी को आते देखकर वह पटरी पर खड़ा हो गया था, ड्राइवर ने जब देखा तो गाड़ी की स्पीड कम करने में उसे समय लगा और तब तक वह टकरा गया।’
’मालगाड़ी थी। उसकी गति धीमी होती है। तेज रफ्तार वाली यात्री गाड़ी होती तो शरीर के चीथड़े उड़ जाते। ’
’भई, वहाँ से तो एक ही लंबी-सी मालगाड़ी निकलती है।’
’हाँ, उसी से तो टकराया।’
’पता नहीं कितने दिनों से योजना बना रहा था। गाड़ी के समय को निश्चित कर रहा था।’
’जान लेते समय बच्चों का भी नहीं सोचा.. साक्षी तो हर रोज़ परीक्षा देती थी।
क्या कह रही हैं आप, मिसेज पांडियन?
’अरे आप लोगों को नहीं पता, अब तो तकरीबन सबको मालूम है।’ सबने अपनी-अपनी कुर्सियों दीवार से हटाकर गोल घेरे में कर लीं, ताकि बात को करीब से सुन सकें।
’क्यों?’ सबकी औंखें प्रश्नवाचक थीं।
’शेखर के किसी जेम्स के साथ संबंध थे।’
’क्या.?’ सबके मुँह से यह शब्द निकला, पर बड़ी दबी जुबान में।
’ठीक है, अगर पुरुष का साथ पसंद था तो साक्षी से शादी क्यों की?’
’अब किससे और कौन पूछे?’ ’और साक्षी को पता कैसे नहीं चला?’
’तीन बच्चे साक्षी ने ऐसे आदमी के साथ कैसे पैदा कर लिए?’
’यह समय इन बातों का नहीं। साक्षी को हमारे साथ की जरूरत है। तीन बच्चों के साथ वह अकेली हो गई है, इस देश में।’ पारुल ने एक तरह से सबको चुप कराते हुए कहा।
’सही कहा तुमने? औरत पर क्या गुजरती है, सिर्फ़ वही जानती है और कोई नहीं।’ मिसिज भास्कर ने लंबी साँस लेते हुए कहा।
’पारुल, तुम साक्षी की सहेली हो, सच्चाई से बेखबर नहीं, आत्महत्या का कोई तो कारण होगा।’ मिसिज तांबे पारुल की ओर देखते हुए बोलीं।
’आटी, सिवाय साक्षी के सच्चाई कोई नहीं जानता। जेम्स की बात भी पता नहीं कैसे लोगों तक पहुँच गई?’
’मुझे तो इतना पता है कि साक्षी ने पुलिस को पोलाइट रिक्वेस्ट की थी कि पत्र में लिखा हुआ अगर सार्वजनिक न किया जाए तो वह आभारी होगी। पुलिस ने उसे मान लिया और निजता तथा पारिवारिक सुरक्षा के अंतर्गत उसे फ़ाइल में रखकर सील कर दिया।’
’अमरीका में क्या-क्या देखने-सुनने को मिलता है! रौंगटे खड़े हो जाते हैं।’ मीनल की सास बोलीं।
’आंटी, होता भारत में भी सब-कुछ है, बस ढक लिया जाता है। औरत ही कई बार अपने लिए खड़ी नहीं होती।’ पारुल रूखी-सी बोली।
’खैर, अब तो वहाँ भी बहुत-कुछ सामने आने लगा है।’
मीनल ने सास को कहा।
’ओह! गॉड। साक्षी के चेहरे की ओर देखा नहीं जा रहा।’
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